Kavita Jha

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मेरी बैस्टी मेरी डायरी# डायरी लेखन प्रतियोगिता -17-Dec-2021

18 दिसंबर

साल भर की बातों को उन यादों को फिर से जीना बहुत सुकून देता है। शुरुआत अच्छी रही लेखन के सफर पर निकल पड़ी थी।सभी प्रतियोगिताओं में हिस्सा ले रही थी ! जनवरी माह की बात करे तो गुड़ की मिठास आ जाती है और 14 जनवरी को मनाया जाने वाला त्यौहार मकर संक्रांति को कैसे भूल सकते हैं तो बस उसी की कुछ यादें साझा कर रही हूं।इस साल का ये त्यौहार परिवार के साथ खूब इंजॉय करते हुए मनाया पर फिर भी मां पापा की यादें साथ थी। अपनी ही ओनलाइन डायरी का एक पन्ना सांझा कर रही हूं बैस्टी यहां लेखनी पर..

14 जनवरी 2021

हैप्पी मकर संक्रांति
हाँ मेरी डायरी आज है मकर संक्रांति...
पहले जैसा कुछ नहीं होता अब किसी भी त्यौहार में..  वो रौनक वो जोश.. वो इंतजार.. वो तैयारियाँ...  सब बदल गया है। लोग बदले जगह बदली और ये कविता भी ना जाने कब बदल गई। अब तो बस खुद को और सबको हैप्पी संक्रांति बोल कर ही हैप्पी होने का अनुभव करती हूँ ।

आज के दिन के लिए पूरे एक हफ्ते से तैयारी करते थे हम। मेरी मम्मी तिल का लड्डू जब बनाती उसकी खुशबू मुझे बर्बस ही अपनी तरफ खीच लेती। और मैं उसी के पास जाकर बैठ जाती..  तिल भून कर गुड़ की चाशनी बनाती तो मेरे लिए एक कटोरी में थोडा़ सा निकाल कर रख देती... मुझे वो जमी हुई गुड़ की चाशनी बहुत अच्छी लगती थी बिलकुल टाॅफी जैसी। फिर जब चाशनी में तिल डाल उसके छोटे छोटे लड्डू बना थाली में रख उस थाली को घुमाती तो वो नाचते हुए लड्डू...  बड़ा मजा आता था वो देखने में। मैं भी इस काम में मम्मी की मदद करती.. मदद कितना कर पाती वो तो पता नहीं पर हाँ वो लड्डू जिन्हें मैं नचाती वो तो टूट ही जाते थे...  मम्मी फिर उन्हें ठीक करती और सिखाती ऐसे नहीं... इस तरह करो।

चिड़वा के लड्डू भी मम्मी बहुत खास तरीके से बनाती थी...  कम मीठा और बहुत सौफ्ट.. ज्यादा मीठा हमारे घर में कोई नहीं खाता था। उन लड्डूओं के लिए चिड़वा भी अलग होता था... और गुड़ का भी खास ध्यान रखती थी माँ। चूड़ा  पतला... उसके लिए कई बार मुझको और पापा को दुकान जाना पड़ता... ऐसा नहीं.. ये क्या ले आऐ.. और फिर हम दूसरी दुकान से लाते।

उन लड्डूओं को माँ चिल्लोड़ कहती... उसके लिए भी पहले चिड़वा(चूडा़) भूँजती फिर गुड़ की चाशनी में भुने हुए चिड़वा डाल अच्छे से मिलाती। इसका बनाने का तरीका तिल वाले लड्डू से बिलकुल अलग होता... इसके लिए माँ पापा की धोती या अपनी सूती साड़ी लाती। पहले हाथ से आकार देकर कपड़े में बाँधती...  यह प्रकिया भी बहुत आनंदमय होती  हमारे लिये..  ऊन से बाँधने का काम तो मेरा ही होता। मुझे तो यह सब खेल जैसा ही लगता। इस बीच अगर मेरी कोई सहेली मेरे साथ पढ़ने या खेलने आती तो वो भी हमारे साथ लड्डू बनाने में जुट जाती।

मम्मी को बहुत सारे तिल और चूड़ा के लड्डू बनाने पड़ते थे। गली में सबके घर बाँटने जाते हम...जो भी घर आता उनके लिए ... और खासकर भईया के टैंट हाऊस के सारे लोगों और उनके सारे दोस्तों के लिए.. यानि ढेर सारे। तभी तो पूरा हफ्ता लग जाता था हमें मकर संक्रांति की तैयारी में।

  पापा बहुत सारी मूंगफली, पोपकन, रेवड़ी, गज्जक लाते।
हम सुबह चार बजे से पहले ही उठ जाते। दिल्ली में मौसम इस समय बहुत ही ठंडा रहता था। पानी भी रोज तो आता नहीं था तो बड़े बड़े ड्रम में स्टोर करके रखते थे। पानी इतना ठंडा होता कि उसमें हाथ डालते ही उंगलियां गल जाऐं। उसे गर्म करने का काम भाई ही करता। रात 10-11 बजे ही टैंट हाऊस वाले बड़े से पतीले को हीटर पर रखता... सुबह चार बजे तक हम सब उस गर्म पानी से नहा लेते।

  पापा आग जला कर रखते हम सब नहा कर पूजा कर.  पूजा की थाली में मम्मी दान का बहुत सारा सामान रखती... और हम सबको उसे छू कर प्रणाम करने कहती। फिर हम भी  पापा के साथ वहीं आग के पास बैठ मूंगफली और तिल के लड्डू  खाते।

  हमारे घर में किसी को चूड़ा दही खाना पसंद नहीं था तो हमारे यहाँ तो सुबह सात बजे तक ही खिचड़ी बन जाती। पापा कहते खिचड़ी के चार यार... दही, पापड़, घी, आचार।

  दिल्ली में मकर संक्रांति में पतंग तो उडा़ते मैंने कभी नहीं देखा... वहाँ तो 15 अगस्त को हम पतंग उड़ाते थे।

संक्रांति से एक दिन पहले लोहड़ी वाले दिन हमारी गली में बहुत रौनक चहल पहल रहती...  मैं भी अपने दोस्तों के साथ लोहड़ी गाना सीख गई थी और  उनके साथ घर घर जा लोहड़ी भी माँगा करती...  फिर घर आकर मम्मी पापा को भी वो सुनाती और पापा  मुँगफली और पैसे देते।

यहाँ झारखंड में भी यह त्यौहार तो हम कर साल मनाते हैं.. वही तिल चूड़ा का लड्डू भी बनाते है... पर तरीका अलग... स्वाद अलग। खाते भी हैं खिलाते भी हैं.. पर वो पहले वाला मजा नहीं आता... पता ही नहीं चलता कि कोई त्यौहार आने वाला है ।
वो तो तो मेहरबानी है अब इस इंटरनेट की दुनिया की जो हमें याद दिलाती है हर त्यौहार की।
यहाँ बच्चे आज के दिन पतंग उड़ाते हैं। यह रंग बिरंगी पतंगे  हमेशा भाती आई है मुझे... अभी भी याद आता है कितनी चोटें लगा करती थी पतंग लूटने में।

प्यार की डोर से बंधी ये पंतगे हमारे रिस्तों की तरह ही तो हैं... ज्यादा ठील देने से... डोरी का पतंग से जुदा होना.. कभी पतंग का कटना तो कभी कहीं किसी पेड़ या तार में जाकर अटकना...  रिस्तों के टूटने के समान ही तो है।
बस भगवान से यही प्रार्थना है कि हमारे रिस्तों की डोर बंधी रहे..  गुड़ की मिठास हर कड़वाहट को दूर कर दे।
नऐ साल का यह पहला पर्व खुशियाँ अपार लाऐ।

***

उम्मीद है कि इस आने वाले साल यानि २०२२ में भी ये मकरसंक्रांति का त्योहार हम सब खुशी खुशी मनाएं।

***
कविता झा काव्या 'कवि

# लेखनी

# डायरी प्रतियोगिता

१८.१२.२०२१



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2 Comments

Gunjan Kamal

18-Dec-2021 08:45 PM

बिल्कुल सही कहा आपने मैम

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🤫

18-Dec-2021 08:34 PM

बेहद खूबसूरत ma'am, सही कहा आजकल त्योहारों में वह मजा कहां जो कभी बचपन में आया करता था, आपाधापी भरे जीवन में यह आनंदकहीं खो सा गया है। वैसे हमे ये चिड़वा शब्द समझ में नहीं आया, इसका क्या अर्थ होता है।

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